Friday, February 3, 2012

जिंदगी की रवानगी

जिंदगी की रवानगी में
जीवन की सांझ में
दुखों के साए को भूलता चला आया
मैं इतनी दूर निकल आया
कि मेरे पीछे कुछ छूट जाने
का एहसास तक नहीं रहा

जिंदगी की रवानगी में
मैं इतनी दूर निकल आया.
मुड़ना जो चाहा मैंने.
कहीं न मैं ठहर पाया.
वक़्त फिसला कुछ ऐसे.
रेत हाथो में समेटा हो.
खूबसूरत कोई सपना जैसे.
अभी अभी आँखों से लुटा हो.


जिंदगी की रवानगी में
मैं काफी दूर निकल आया
अब तो बस यादें हैं
झिलमिलाती सी उन पलों को
अब समेट लेने की चाह लिए
काफी दूर चला आया.

1 comment:

Unknown said...

Very nice keetna accha leekhte ho aap har poetry padh kar lagta hai jaise aap ke apne kahane hai too good.